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Saturday, 29 September 2018

“ज़िन्दगी में हर एक को...”













ज़िन्दगी में हर एक को साथ छोड़ जाते देखा
फ़क़त एक मय को यहाँ रिश्ता निभाते देखा

ख़ुद के गिरेबाँ तक नज़र पहुँचे या ना पहुँचे..
हर शख़्स को दूसरों को मगर आज़माते देखा

छोटा हो बड़ा हो, शाह हो या हो कोई फ़क़ीर
हर किसी को आख़िर चार कांधों पे जाते देखा

उसकी रहमत सिर्फ़ इबादत की नहीं मोहताज
ख़ुदा-परस्त को तरसते, काफ़िर को पाते देखा

जिन से जुदाई का तसव्वुर भी ना था मुमकिन
उन अज़ीज़ों को बिछड़ने पे हाथ हिलाते देखा

किसी के हिज्र का सबब बहुतेरे बना करते हैं
चंद मसीहों को मगर बिछड़ों को मिलाते देखा

दूसरों को मुस्तक़िल ज़ख्म देने वालों को कभी 
जहां में अपना भी चाके-जिगर सिलवाते देखा

अंजाम से वाक़िफ़, बेख़ौफ़ परवानों को हमने
जुनूने-इश्क़ में अक्सर शमा पर मँडराते देखा 
    
मौत के परियों की मानिंद दिल-फ़रेब अफ़्साने
बाज़ दफ़ा ख़ुद को मैंने अपने को सुनाते देखा

रहे तो दुनिया में इक उम्र, मगर ख़ुद में महव
ना किसी ने जीते देखा, ना किसी ने जाते देखा


फ़क़त: सिर्फ़; रहमत: कृपा; ख़ुदा-परस्त: ख़ुदा को पूजने वाला; तसव्वुर: कल्पना; अज़ीज़: प्रिय; हिज्र: जुदाई; 
सबब: वजह; मुस्तक़िल: हमेशा; चाक-ए-जिगर: दिल का ज़ख्म; मानिंद: जैसे; बाज़ दफ़ा: कई बार; महव: डूबे 




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