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Saturday, 22 September 2018

प्रतिबिंब


“प्रतिबिंब!”

आज...
बरसों के बाद
मन के आईने में
ख़ुद को देखा मैंने. 

पहले सी मासूमियत
कहीं भी तो न थी. 

आँखों से जो सच्चाई
झाँका करती थी
खो चुकी थी कहीं.

मक्कारी का कालापन
चेहरे की रंगत में
झलकने लगा है.

अंतरात्मा पर
निरंतर बढ़ता बोझ
झुर्रियाँ बनने लगा है. 

और ख़ून की तरह
बाल भी कहीं-कहीं 
सफ़ेद हो चले हैं...

-एमके



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