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Tuesday 31 August 2021

हाकिम-ए-आ'ला

 

हाकिम-ए-आ'ला

 

जिसका ये सब करम, वो हाकिम-ए-आ'ला आसमानी है

यहाँ जो भी, जब भी होता है, सब उसकी हुक्म-रानी है!

 

हम अदना से इंसान, हम सबके बस में कुछ भी तो नहीं

ये दुनिया और ये नेमतें तमाम, सब रब की मेहरबानी है!

 

दुख-सुख साथ ही रहते हैं, मुनहसिर है कुछ हम पर भी

दिल दुखी तो फ़ज़ा उदास है, वर्ना हर-सू शादमानी है!

 

जो कल था वो आज नहीं है, जो आज है कल होगा नहीं

इक बार जीना है खुलके जी लो, छोटी सी ज़िंदगानी है!

 

मौजूदा दौर का हाल ये है, कब क्या हो जाए, पता नहीं

ये जो सब कुछ सालिम है, बस दुआओं की सायबानी है!

 

हिफ़ाज़त है उसका ज़िम्मा, तुम बस ख़ुदा को याद रखो

ख़ुद को उसके हवाले कर दो, ये बात अगर आज़मानी है!

 

eMKay

 

हाकिम-ए-आ'ला: सर्वोपरि शक्ति, ईश्वर; हुक्म-रानी: सलतनत; मुनहसिर: निर्भर;

हर-सू: सब तरफ़; शादमानी: ख़ुशी; सालिम: संपूर्ण, यथावत्; सायबानी: पनाह, सहारा




Saturday 4 May 2019

चतुर सियार!




      दशहरे की छुट्टिओं के बाद, अपने-अपने घर से लौटे हम चार दोस्त कॉलेज-हॉस्टल के पास वाले ढाबे पर जमे हुए थे। मार्विन गोआ से आते हुए व्हिस्की की एक बोतल उठा लाया था और अब जाम के साथ-साथ हमारी गपशप चल रही थी! ढाबे का मालिक कोई ऐतराज़ नहीं करता था - नियमित आना-जाना जो था हमारा।
वैसे कॉलेज में भले ही हम अभी ग्रेजुएशन कर रहे हों, शराब-सिगरेट के मामले में ग्रेजुएट हो चुके थे!
उस दिन सब के पास अपनी-अपनी कोई कहानी थी सुनाने को...
"इस बार की छुट्टी मेरे लिए थोड़ी ख़ास थी," कुलबीर बोला, जिसकी अब बारी थी।
"क्यूँ? ऐसा क्या स्पेशल था?" मैंने पूछा।
"मम्मी-डैडी की शादी की सिल्वर जुबली," उसने जवाब दिया।
"मुबारक हो यार!" सब ने अपना-अपना गिलास उठा कर बधाई दी।
"शुक्रिया! बठिंडा में, हमारे घर पर ही एक शानदार पार्टी थी - सब रिश्तेदार, दोस्त जमा थे उस ख़ास वेडिंग एनिवर्सरी सेलिब्रेशन के लिए।"
"दारु?" आकाश उत्तेजित हो कर बोला, "दारु भी थी क्या?"
"अरे यार, हम पंजाबी हैं!" छाती फुलाते हुए कुलबीर ने जवाब दिया, "हमारे यहाँ दारु के बिना किसी पार्टी को पार्टी नहीं माना जाता..."
"लेकिन तेरा क्या?" हंसी रुकने पर आकाश बोला, "तू तो पीता नहीं होगा घर वालों के सामने!"
"मतलब ही नहीं है यार!" कुलबीर ने बताया।
"फिर तेरे लिए तो क्या पार्टी हुई वो?!" मैंने हमदर्दी ज़ाहिर की।
"पूरी बात तो सुन लो तुम लोग पहले..."
"चल बोल!"
                "खाना लगने में अभी वक़्त था; संगीत का लुत्फ़ उठाते हुए हम सब ड्राइंग रूम में बैठे बातें कर रहे थे जब डैडी ने मेरे बड़े भाई रणजीत को ड्रिंक्स शुरू करने को कह। भाई उठा और कमरे की एक दीवार से लग कर बनी विशाल बार-कैबिनेट की तरफ़ चल दिया। मेरे मदद के लिए पूछ पाने से पहले ही रणजीत ने किसी कुशल बारटेंडर की तरह मोर्चा संभाल लिया था। वह हरेक से पहले उस की पसंद पूछता और उसी हिसाब से फ़टाफ़ट ड्रिंक बना कर पेश कर देता..."
"क्या कहने!" असगर जो अब तक चुप बैठा था, बोल ही पड़ा, "यानि पूरी वैरायटी थी…"
"बिल्कुल... स्कॉच, वोडका, डार्क रम और बियर वगैराह!" हम सब ललचाई नीयत से सुन रहे थेा।

"पहले दो राउंड तक तो किसी को सूझा भी नहीं मुझसे पूछने के बारे में," कुलबीर आँख दबाते हुए बोला, "मैं अभी बच्चा जो ठहरा!"
"मतलब यह कि बच्चे ने कोक से काम चलाया!" इस बार असगर ने सहानुभूति जताई!
                "कुछ देर बाद, मैं भी रणजीत का हाथ बटा रहा था," कुलबीर आगे बोला, "अपने एक अंकल के लिए जब मैं नया पेग लेकर पहुंचा तो उन्होंने पूछ लिया - 'काका, तेरा अप्पना ड्रिंक कित्थे ?'
'मैं नहीं पीता, अंकल,' मैंने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया।
'तुम तो कॉलेज में हो , बेटा? और जल्दी ही ग्रेजुएट होने वाले हो!'
'जी, लेकिन मैं पीता नहीं!’ मैंने इस बार ज़रा ऊँची आवाज़ में कहा ताकि दूसरे भी सुन सकें।
'भाजी,' वे मुझे छोड़, डैडी से मुख़ातिब हुए, 'मुंडा जवान हो गया , उत्तों इन्ना ख़ास मौक़ा! तुसी कुलबीर नू इक बियर वी नहीं पीण दिओगे?'
'मैं केड़ा इहदा हत्थ फड़िआ ?’ डैडी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मुझे कोई ऐतराज़ नहीं, बशर्ते यह ख़ुद पीना चाहता हो!'

                "बस, इतना सुनना था कि रणजीत ने मेरी तरफ़ एक बियर की बोतल बढ़ा दी। हर कोई मेरी ओर ऐसे देख रहा था जैसे मैं कोई क़िला फ़तेह करने जाने वाला था! मैंने भी आँखों में ख़ुशी की चमक लिए बोतल को थाम लिया। रणजीत अभी बॉटल-ओपनर ला ही रहा था कि मैंने बोतल को मुंह में डाला और तुरंत अपने दांतों से उसका ढक्कन खोल दिया - टक्क करके, उसने मुंह से आवाज़ निकालते हुए कहाजैसे हम अक्सर यहाँ करते हैं!"
"और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता,” कुलबीर ने बात ख़त्म की, “पार्टी में सबके ठहाके गूँज रहे थे..."
"अरे, तू क्या बेवक़ूफ़ है?!" हम सब हैरानी से एक सुर में बोले।

*****

Saturday 27 April 2019

“जीवनसार”


जीवनजैसे
किसी नवजात
शिशु की किलकारी I
पहले संभलना,
फिर अपने
पैरों पर खड़ा होना I

किसी भी
बढ़े हुए हाथ की
उंगली थाम कर,
नित नए
लक्ष्य की ओर
नन्हे-कदम बढ़ाना I

निरर्थक शब्द,
चाँद-सितारों
को छूने का हठ;
अंतत: थक कर
माँ की
गोद में सो रहना !


***



Saturday 20 April 2019

"कश्मकश"



  कहीं ऐसा तो नहीं…

  आँधियों का ना होकर

  कुसूर बस हमारा ही हो

  जो यूँ ग़र्दे-राह की तरह

  हल्के-बेबस से हो कर

  उड़ा करते हैं ऐसे अक्सर

  जज़्बात की हर रौ में…?!




Saturday 13 April 2019

पहला प्यार





तेरी साँसों की महक़ आज तक मुझे तड़पाती है…
तेरे जिस्म की तपिश अब भी मुझे सुलगाती है

अपने क़दमों की आहट लगे कभी तुम्हारी सी…
और अपनी आवाज़ में से तेरी आवाज़ आती है

सिगरेट के धुँए में भी तेरा ही अक्स उभरता है….
हर धड़कन मेरे दिल की तेरे नग़्मे गुनगुनाती है

इक आह सी उठती है दिल के किसी कोने से…
तन्हाई में तेरी याद जब आ-आ कर सताती है

रातों को जब मैं जगकर तारे गिना करता हूँ…
हर तारे में मुझ को तेरी तस्वीर नज़र आती है



अलविदा


कई दिनों तक इसके अलावा कुछ और सोच नहीं पाता था मैं... क्या रवि, मेरा दोस्त, अपनी जगह ठीक नहीं? इस मिडिल-क्लास ज़िन्दगी को अब तक जीते, इतनी जद्दो-जहद के बावजूद भी मुझे क्या हासिल हुआ है? मगर अमेरिका में, शादी के सहारे, जाकर बस जाने का एक मतलब होता कविता को धोखा देना। क्या ऐसा कर सकता था मैं? क्या ऐसा करना चाहिए था मुझे? मगर और कोई चारा भी कहाँ था, माली-तौर पर एकदम से संभलने का। लेकिन... कविता! उसका क्या? आख़िर मेरी जान थी वो, मेरी ज़िन्दगीजिसे कॉलेज के वक़्त से ही बेहद चाहता आया था मैं - मेरा पहला प्यार!

आख़िर अपने आप को, अपनी ख़ुशियों को मिटा कर, दूसरों की नज़रों में कुछ बनने का, उनके लिए कुछ करने का... फ़ैसला कर ही लिया मैंने। इससे मेरे माँ-बाप और मेरा छोटा भाई, सुधांशु, तो ख़ुश रह सकते थे; यह एक ऐसी वजह थी जिसके सामने अपनी थोड़ी सी तकलीफ़ काफ़ी छोटी लगी थी मुझे।

यूँ अचानक अपना दामन छुड़ा लेने पर मैंने कम--कम एक "क्यों" की तो उम्मीद की थी उससे, हालाँकि इससे कहीं ज़्यादा का गुनहगार था मैं! लेकिन उसने मेरे लिए शायद इन सब से कहीं बढ़कर एक सज़ा मुक़र्रर कर ली थी... उसने मुझसे कुछ नहीं कहा... कुछ भी नहीं पूछा।

थोड़ा वक़्त बीता और मैं धीरे-धीरे एक जुर्म के एहसास से घिरता चला गया... उसको भूल जाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम होने लगीं। अगर मुझे ऐसा ही करना था तो उसकी भावनाओं के साथ खेलने का क्या हक़ था मुझे? क्यों उसके साथ इस बुरी तरह से जोड़ लिया था मैंने ख़ुद को... क्यों?

एक अजीब से दौर से गुज़र रहा था मैं। मेरे अंदर ख्यालों के, जज़्बात के, सैलाब उमड़ रहे थे, मैं कविता की याद में दीवाना सा हो चला था। मैं जानता था कि मैंने हमेशा उसे चाहा था, लेकिन अपने प्यार की शिद्दत को, उसकी ईमानदारी को पहले कभी नहीं जाना था मैंने। फिर उसी दौर से गुज़रते हुए मैंने रवि को ख़त लिखा कि मेरे लिए अब बदले हुए हालात के तहत अमेरिका जाकर सैटल होना मुमकिन नहीं रहा।

अब मैं ज़मीर के हाथों मजबूर होकर कविता से मिलना चाहता था, देखना चाहता था उसे, उससे कुछ सुनना चाहता था, लेकिन दो महीने बीत गए, ऐसा एक भी मौक़ा हाथ आया। तब मैंने उसे एक ख़त लिखा कि कुछ ज़ाती वजह से मैं उससे मिलना चाहता हूँ। उम्मीद के ख़िलाफ़ एक हामी भरा जवाब, और वो भी इतना जल्दी आने पर, मुझे दरअसल ख़ुशी से ज़्यादा हैरत ही हुई।

फिर वो दिन भी आन पहुँचा, घड़ी की सुईयाँ जैसे बेजान सी, धीरे-धीरे चल रही हों, मगर तीन तो आख़िर बजने ही थे, बजे। वह हमेशा की तरह ठीक वक़्त पर गई थी... ज़्यादा बातें हमारे बीच की ख़ामोशी ने कीं। मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि मैंने उसे बुलाया क्यों था - क्या मैं उसे बस देखना चाहता था... या अपने से जुदा देखना चाहता था... या मैं ख़ुद को देखना चाहता था, उसके रूह-बरूह ! या इसलिए कि शायद मैं उसे अपने दिल की भड़ास निकालने का एक मौक़ा देना चाहता था... या फिर मैं वाक़ई उस मसले का कोई हल चाहता था। ख़ैर, हमारे बीच की तब तक अखरने लगी ख़ामोशी को मैंने ही तोड़ा - पूरी सफ़ाई से, पूरी ईमानदारी से, हर इलज़ाम अपने ऊपर लेते हुए! वह बस मेरी तरफ़ एक-टक देखते हुए चुप-चाप सब कुछ सुनती रही... और फिर उसने एक ऐसी बात कह दी, जिसकी असीम चाह होते हुए भी मैं ख़ुद को जिसका हक़दार नहीं समझता था -

"मयंक, क्या हम अब भी उसी राह पर चल सकते हैं - एक साथ?"

इस सवाल का जवाब मेरे जिस्म के रोम-रोम ने दिया... मैंने बिना कुछ कहे उसकी तरफ़ देखा, उसका नाज़ुक सा हाथ अपने हाथ में लेकर, अपनी बड़ी सी "हाँ", अपना इक़रार उस तक पहुँचाते हुए!

एक सच्ची मौहब्बत ने अपने रास्ते की मुश्किलों पर क़ाबू पाने का हौसला किया था... तूफ़ान से जूझती मेरी कश्ती को किनारा दिख गया था... मैं अपना दुःख-दर्द भूल, ख़ुद को एक बार फिर क़ायम, महफ़ूज़ महसूस करने लगा था।

सिर्फ़ तीन दिन बाद मुझे कविता का एक ख़त मिला, मैंने लिफ़ाफ़ा खोल कर पूरा मज़मून पढ़ डाला... कुछ समझ नहीं रहा था, दोबारा पढ़ा... मगर लफ्ज़ ज्यूँ के त्यूँ थे .. उसके पिता जी की अब मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं रही थी, और वह उन्हें इस रिश्ते के लिए मजबूर करके किसी तरह की तकलीफ़ पहुँचाना नहीं चाहती थी। माँ के गुज़रने के बाद, वैसे भी दिल के मरीज़ उसके पिता जी, उसका इकलौता सहारा बचे थे!

अभी मैंने ख़ुद को किनारे पर पाया ही था कि मुझे उठा कर वापिस उसी समंदर में पटक दिया गया था। मगर मैंने ठान लिया कि इस फ़ैसले को इतनी आसानी से तो नहीं मानूँगा।

अगले ही दिन, मैं उसके घर पर, उसके वालिद साहब के सामने खड़ा था -

"तुम्हें ख़त तो मिल गया होगा कविता का... अब क्या लेने आए हो?"
"मेरा क़ुसूर?"
"मैं नहीं समझता कि तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी है!"
"आपको जवाब देना होगा, जनाब! इस तरह हमारी ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते आप...”
हम्म!”
आप जानते हैं मैं उसे बेहद चाहता हूँ..."
"अच्छा?” वे थोड़ा हँसते हुए बोले, “चलो, कमा कितना लेते हो?"
"ठीक से अपनी गुज़र करने लायक़…।"
"कितना?" उन्होंने थोड़ी ऊँची आवाज़ में पूछा।
"बीस हज़ार रुपये..."
"और जिम्मेवारियाँ? तुम उसे कभी ख़ुश नहीं रख पाओगे!"
"लेकिन प्यार करती है वो मुझसे..."
"उसे एक बार छोड़ने का फ़ैसला कर चुकने के बाद भी ऐसा सोचते हो तुम?"
"देखिए... बराये मेहरबानी आप..."
"तुम देखोभले आदमी!" उन्होंने मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए कहा, "मेरा ख़्याल है कि तुम एक शरीफ़ आदमी हो... इस क़िस्से को अब यहीं ख़त्म करो!"
"मैं कविता से मिलना चाहूँगा... एक बार।"
"बस अब नहीं, बर-ख़ुरदार" लहजा एकदम सपाट था, "वक़्त की और बर्बादी नहीं। और हाँ, उसे ख़त लिखने की भी कोशिश मत करना... उसके बारे में सोचना भी मत..."

मुझे लगा मैं अपनी सुनने-समझने की ताक़त खो बैठा हूँ, गुम-सुम सा, थक-हार कर मैं बाहर निकल आया। एक बार पलट कर देखा, ऊपर बाल्कनी में भीगी आँखें लिए कविता खड़ी थी, बेबस!

आस्मान में स्याह बादल छाए थेहवा में भी बारिश की नमी फैली थी।

और हर तरफ़ एक अजीब सी उदासी...
*****