कई
दिनों तक इसके अलावा कुछ
और सोच नहीं
पाता था मैं...
क्या रवि, मेरा
दोस्त, अपनी जगह
ठीक नहीं? इस
मिडिल-क्लास ज़िन्दगी
को अब तक जीते, इतनी
जद्दो-जहद के बावजूद भी
मुझे क्या हासिल
हुआ है? मगर अमेरिका में, शादी
के सहारे, जाकर
बस जाने का एक मतलब
होता कविता को
धोखा देना। क्या
ऐसा कर सकता था मैं?
क्या ऐसा करना
चाहिए था मुझे?
मगर और कोई चारा भी
कहाँ था, माली-तौर पर
एकदम से संभलने
का। लेकिन... कविता!
उसका क्या? आख़िर
मेरी जान थी वो, मेरी
ज़िन्दगी … जिसे कॉलेज
के वक़्त से ही बेहद
चाहता आया था मैं - मेरा
पहला प्यार!
आख़िर
अपने आप को, अपनी ख़ुशियों
को मिटा कर,
दूसरों की नज़रों
में कुछ बनने
का, उनके लिए
कुछ करने का...
फ़ैसला कर ही लिया मैंने।
इससे मेरे माँ-बाप और
मेरा छोटा भाई,
सुधांशु, तो ख़ुश
रह सकते थे;
यह एक ऐसी वजह थी
जिसके सामने अपनी
थोड़ी सी तकलीफ़
काफ़ी छोटी लगी
थी मुझे।
यूँ
अचानक अपना दामन
छुड़ा लेने पर मैंने कम-स-कम
एक "क्यों" की तो उम्मीद की
थी उससे, हालाँकि
इससे कहीं ज़्यादा
का गुनहगार था
मैं! लेकिन उसने
मेरे लिए शायद
इन सब से कहीं बढ़कर
एक सज़ा मुक़र्रर
कर ली थी...
उसने मुझसे कुछ
नहीं कहा... कुछ
भी नहीं पूछा।
थोड़ा
वक़्त बीता और मैं धीरे-धीरे एक
जुर्म के एहसास
से घिरता चला
गया... उसको भूल
जाने की मेरी तमाम कोशिशें
नाकाम होने लगीं।
अगर मुझे ऐसा
ही करना था तो उसकी
भावनाओं के साथ खेलने का
क्या हक़ था मुझे? क्यों
उसके साथ इस बुरी तरह
से जोड़ लिया
था मैंने ख़ुद
को... क्यों?
एक
अजीब से दौर से गुज़र
रहा था मैं। मेरे अंदर
ख्यालों के, जज़्बात
के, सैलाब उमड़
रहे थे, मैं कविता की
याद में दीवाना
सा हो चला था। मैं
जानता था कि मैंने हमेशा
उसे चाहा था,
लेकिन अपने प्यार
की शिद्दत को,
उसकी ईमानदारी को
पहले कभी नहीं
जाना था मैंने।
फिर उसी दौर से गुज़रते
हुए मैंने रवि
को ख़त लिखा कि मेरे
लिए अब बदले हुए हालात
के तहत अमेरिका
जाकर सैटल होना
मुमकिन नहीं रहा।
अब
मैं ज़मीर के हाथों मजबूर
होकर कविता से
मिलना चाहता था,
देखना चाहता था
उसे, उससे कुछ
सुनना चाहता था,
लेकिन दो महीने
बीत गए, ऐसा एक भी
मौक़ा हाथ न आया। तब
मैंने उसे एक ख़त लिखा
कि कुछ ज़ाती
वजह से मैं उससे मिलना
चाहता हूँ। उम्मीद
के ख़िलाफ़ एक
हामी भरा जवाब,
और वो भी इतना जल्दी
आने पर, मुझे
दरअसल ख़ुशी से ज़्यादा हैरत
ही हुई।
फिर
वो दिन भी आन पहुँचा,
घड़ी की सुईयाँ
जैसे बेजान सी,
धीरे-धीरे चल रही हों,
मगर तीन तो आख़िर बजने
ही थे, बजे।
वह हमेशा की
तरह ठीक वक़्त
पर आ गई थी... ज़्यादा
बातें हमारे बीच
की ख़ामोशी ने
कीं। मैं ठीक से समझ
नहीं पा रहा था कि
मैंने उसे बुलाया
क्यों था - क्या
मैं उसे बस देखना चाहता
था... या अपने से जुदा
देखना चाहता था...
या मैं ख़ुद को देखना
चाहता था, उसके
रूह-बरूह ! या
इसलिए कि शायद मैं उसे
अपने दिल की भड़ास निकालने
का एक मौक़ा देना चाहता
था... या फिर मैं वाक़ई
उस मसले का कोई हल
चाहता था। ख़ैर,
हमारे बीच की तब तक
अखरने लगी ख़ामोशी
को मैंने ही
तोड़ा - पूरी सफ़ाई
से, पूरी ईमानदारी
से, हर इलज़ाम
अपने ऊपर लेते
हुए! वह बस मेरी तरफ़
एक-टक देखते
हुए चुप-चाप सब कुछ
सुनती रही... और
फिर उसने एक ऐसी बात
कह दी, जिसकी
असीम चाह होते
हुए भी मैं ख़ुद को
जिसका हक़दार नहीं
समझता था -
"मयंक, क्या
हम अब भी उसी राह
पर चल सकते हैं - एक
साथ?"
इस
सवाल का जवाब मेरे जिस्म
के रोम-रोम ने दिया...
मैंने बिना कुछ
कहे उसकी तरफ़
देखा, उसका नाज़ुक
सा हाथ अपने
हाथ में लेकर,
अपनी बड़ी सी
"हाँ", अपना इक़रार
उस तक पहुँचाते
हुए!
एक
सच्ची मौहब्बत ने
अपने रास्ते की
मुश्किलों पर क़ाबू
पाने का हौसला
किया था... तूफ़ान
से जूझती मेरी
कश्ती को किनारा
दिख गया था...
मैं अपना दुःख-दर्द भूल,
ख़ुद को एक बार फिर
क़ायम, महफ़ूज़ महसूस
करने लगा था।
सिर्फ़
तीन दिन बाद मुझे कविता
का एक ख़त मिला, मैंने
लिफ़ाफ़ा खोल कर पूरा मज़मून
पढ़ डाला... कुछ
समझ नहीं आ रहा था,
दोबारा पढ़ा... मगर
लफ्ज़ ज्यूँ के
त्यूँ थे .. उसके
पिता जी की अब मुझमें
कोई दिलचस्पी नहीं
रही थी, और वह उन्हें
इस रिश्ते के
लिए मजबूर करके
किसी तरह की तकलीफ़ पहुँचाना
नहीं चाहती थी।
माँ के गुज़रने
के बाद, वैसे
भी दिल के मरीज़ उसके
पिता जी, उसका
इकलौता सहारा बचे
थे!
अभी
मैंने ख़ुद को किनारे पर
पाया ही था कि मुझे
उठा कर वापिस
उसी समंदर में
पटक दिया गया
था। मगर मैंने
ठान लिया कि इस फ़ैसले
को इतनी आसानी
से तो नहीं मानूँगा।
अगले
ही दिन, मैं
उसके घर पर, उसके वालिद
साहब के सामने
खड़ा था -
"तुम्हें ख़त
तो मिल गया होगा कविता
का... अब क्या लेने आए
हो?"
"मेरा क़ुसूर?"
"मैं नहीं
समझता कि तुम्हारे
हर सवाल का जवाब देना
ज़रूरी है!"
"आपको जवाब
देना होगा, जनाब!
इस तरह हमारी
ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ नहीं
कर सकते आप...”
“हम्म!”
“आप
जानते हैं मैं उसे बेहद
चाहता हूँ...।"
"अच्छा?” वे
थोड़ा हँसते हुए
बोले, “चलो, कमा
कितना लेते हो?"
"ठीक से अपनी गुज़र
करने लायक़…।"
"कितना?" उन्होंने
थोड़ी ऊँची आवाज़
में पूछा।
"बीस हज़ार
रुपये..."
"और जिम्मेवारियाँ?
तुम उसे कभी ख़ुश नहीं
रख पाओगे!"
"लेकिन प्यार
करती है वो मुझसे..."
"उसे एक बार छोड़ने
का फ़ैसला कर
चुकने के बाद भी ऐसा
सोचते हो तुम?"
"देखिए... बराये
मेहरबानी आप..."
"तुम देखो…
भले आदमी!" उन्होंने
मेरे कंधे पे हाथ रखते
हुए कहा, "मेरा
ख़्याल है कि तुम एक
शरीफ़ आदमी हो...
इस क़िस्से को
अब यहीं ख़त्म
करो!"
"मैं कविता
से मिलना चाहूँगा...
एक बार।"
"बस अब नहीं, बर-ख़ुरदार" लहजा एकदम
सपाट था, "वक़्त
की और बर्बादी
नहीं। और हाँ, उसे ख़त
लिखने की भी कोशिश मत
करना... उसके बारे
में सोचना भी
मत..."
मुझे
लगा मैं अपनी
सुनने-समझने की
ताक़त खो बैठा हूँ, गुम-सुम सा,
थक-हार कर मैं बाहर
निकल आया। एक बार पलट
कर देखा, ऊपर
बाल्कनी में भीगी
आँखें लिए कविता
खड़ी थी, बेबस!
आस्मान
में स्याह बादल
छाए थे… हवा में भी
बारिश की नमी फैली थी।
और
हर तरफ़ एक अजीब सी
उदासी...
*****
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