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Saturday, 29 September 2018

“ज़िन्दगी में हर एक को...”













ज़िन्दगी में हर एक को साथ छोड़ जाते देखा
फ़क़त एक मय को यहाँ रिश्ता निभाते देखा

ख़ुद के गिरेबाँ तक नज़र पहुँचे या ना पहुँचे..
हर शख़्स को दूसरों को मगर आज़माते देखा

छोटा हो बड़ा हो, शाह हो या हो कोई फ़क़ीर
हर किसी को आख़िर चार कांधों पे जाते देखा

उसकी रहमत सिर्फ़ इबादत की नहीं मोहताज
ख़ुदा-परस्त को तरसते, काफ़िर को पाते देखा

जिन से जुदाई का तसव्वुर भी ना था मुमकिन
उन अज़ीज़ों को बिछड़ने पे हाथ हिलाते देखा

किसी के हिज्र का सबब बहुतेरे बना करते हैं
चंद मसीहों को मगर बिछड़ों को मिलाते देखा

दूसरों को मुस्तक़िल ज़ख्म देने वालों को कभी 
जहां में अपना भी चाके-जिगर सिलवाते देखा

अंजाम से वाक़िफ़, बेख़ौफ़ परवानों को हमने
जुनूने-इश्क़ में अक्सर शमा पर मँडराते देखा 
    
मौत के परियों की मानिंद दिल-फ़रेब अफ़्साने
बाज़ दफ़ा ख़ुद को मैंने अपने को सुनाते देखा

रहे तो दुनिया में इक उम्र, मगर ख़ुद में महव
ना किसी ने जीते देखा, ना किसी ने जाते देखा


फ़क़त: सिर्फ़; रहमत: कृपा; ख़ुदा-परस्त: ख़ुदा को पूजने वाला; तसव्वुर: कल्पना; अज़ीज़: प्रिय; हिज्र: जुदाई; 
सबब: वजह; मुस्तक़िल: हमेशा; चाक-ए-जिगर: दिल का ज़ख्म; मानिंद: जैसे; बाज़ दफ़ा: कई बार; महव: डूबे 




Friday, 28 September 2018

अंदाज़ अपना अपना…





ज़िन्दगी इतनी बुरी नहीं दोस्त, ढंग से जी कर देखो
गर यूँ समझ न पाओ… तो मेरी तरह पी कर देखो !

जहाँ भर को ग़म सुनाते फिरने से है क्या हासिल…
हिम्मत से काम लो, चाक-ए-जिगर सी कर देखो !!


ऐसी ख़ास भी नहीं अब ज़िन्दगी, जी कर देख लिया
कुछ समझ ना आया दोस्त, पी कर भी देख लिया !

ग़म सबको सुनाते फिरने से माना कुछ हासिल नहीं
हिम्मत बेकार हुयी, जिगर सी कर भी देख लिया !




चाक-ए-जिगर: दिल का ज़ख्म




Thursday, 27 September 2018

नाराज़गी किसी की...




नाराज़गी किसी की मिल्कियत कहाँ?
गिला तो एक मुझको भी था...लेकिन !

ख़त कोई इक़रार-ए-मोहब्बत कहाँ?
मिला तो एक मुझको भी था...लेकिन !




- मोहनजीत –





मिल्कियत: ज़ाती जागीर; इक़रार-ए-मोहब्बत: प्यार की स्वीकारोक्ति




     
     
   
 

Wednesday, 26 September 2018

दुश्वारियां ना हों जिसमें...












दुश्वारियां ना हों जिसमें वो ज़िंदगी क्या हुयी !
गर क़ुबूल ना हुयी उसको फिर बंदगी क्या हुयी !!

शिद्दत के बग़ैर किसी चाहत के माने ही क्या..?
मैकदे जा कर रुक जाये तो तिश्नगी क्या हुयी !!






- मोहनजीत –




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Tuesday, 25 September 2018

ना पूछो क्यूँकर वक़्त कटा...




ना पूछो क्यूँकर वक़्त कटा, अजीब-ओ-ग़रीब रहा हाल हमारा..
पीछा ता-उम्र चला, हमने मौत का किया, ज़िन्दगी ने हमारा !

बस किताब-ए-दर्द लिए फिरते रहे, पढ़ने वाले की जुस्तुजू में..
पूछा हर एक ने कि कैसे हो, सुना किसी ने नहीं हाल हमारा !

मोहनजीत



     
     
   
 

Monday, 24 September 2018

एक शोर सा हर-सू बरपा है...




एक शोर सा हर-सू बरपा है, कोई नजात दिखाई देती नहीं
सूरत-ए-हाल यूँ है... मुझको अपनी सदा सुनाई देती नहीं !

बेताबियाँ शायद मुक़द्दर है, भटकना गोया तक़दीर मेरी
मंज़िल तो नज़र की ज़द में है, कोई राह सुझाई देती नहीं !

जिस्म कुछ इतना नाज़ुक है, बेहाल-निढाल हुआ जाता है
लहू से अगरचे शराबोर रहे...कभी रूह दुहाई देती नहीं !  

मोहनजीत 



हर-सू: हर तरफ़; बरपा: होना; नजात: मुक्ति; सूरत-ए-हाल: वर्तमान स्थिति; सदा: आवाज़;
बेताबी: बेचैनी; गोया: जैसे; ज़द: पहुँच; अगरचे: चाहे; शराबोर: भीगा हुआ; दुहाई: फ़रियाद करना

Saturday, 22 September 2018

"तो बात बने... !"


सलीब अपनी उठाओ तो बात बने…
मसीहा बन के दिखाओ तो बात बने !

हंसते हुए भीगी होंगीं पलकें अक्सर
रोते हुए भी मुस्कुराओ तो बात बने !

छोड़ देना कहीं क्या मुश्किल है…
मक़ाम तक पहुँचाओ तो बात बने !

ख़ुशगवार राहों का सफ़र आसाँ होगा
पत्थरों पर चल पाओ तो बात बने !

दुनिया को परखने से क्या हासिल…
कभी ख़ुद को आज़माओ तो बात बने !

रंजिशें निभाने में कहाँ कुछ रखा है
गर रिश्ते निभा पाओ तो बात बने !

ज़िन्दगी छोटी सही...नायाब तोहफा है
बस सलीक़े से जी पाओ तो बात बने !


प्रतिबिंब


“प्रतिबिंब!”

आज...
बरसों के बाद
मन के आईने में
ख़ुद को देखा मैंने. 

पहले सी मासूमियत
कहीं भी तो न थी. 

आँखों से जो सच्चाई
झाँका करती थी
खो चुकी थी कहीं.

मक्कारी का कालापन
चेहरे की रंगत में
झलकने लगा है.

अंतरात्मा पर
निरंतर बढ़ता बोझ
झुर्रियाँ बनने लगा है. 

और ख़ून की तरह
बाल भी कहीं-कहीं 
सफ़ेद हो चले हैं...

-एमके