Stories

Saturday, 27 April 2019

“जीवनसार”


जीवनजैसे
किसी नवजात
शिशु की किलकारी I
पहले संभलना,
फिर अपने
पैरों पर खड़ा होना I

किसी भी
बढ़े हुए हाथ की
उंगली थाम कर,
नित नए
लक्ष्य की ओर
नन्हे-कदम बढ़ाना I

निरर्थक शब्द,
चाँद-सितारों
को छूने का हठ;
अंतत: थक कर
माँ की
गोद में सो रहना !


***



Saturday, 20 April 2019

"कश्मकश"



  कहीं ऐसा तो नहीं…

  आँधियों का ना होकर

  कुसूर बस हमारा ही हो

  जो यूँ ग़र्दे-राह की तरह

  हल्के-बेबस से हो कर

  उड़ा करते हैं ऐसे अक्सर

  जज़्बात की हर रौ में…?!




Saturday, 13 April 2019

पहला प्यार





तेरी साँसों की महक़ आज तक मुझे तड़पाती है…
तेरे जिस्म की तपिश अब भी मुझे सुलगाती है

अपने क़दमों की आहट लगे कभी तुम्हारी सी…
और अपनी आवाज़ में से तेरी आवाज़ आती है

सिगरेट के धुँए में भी तेरा ही अक्स उभरता है….
हर धड़कन मेरे दिल की तेरे नग़्मे गुनगुनाती है

इक आह सी उठती है दिल के किसी कोने से…
तन्हाई में तेरी याद जब आ-आ कर सताती है

रातों को जब मैं जगकर तारे गिना करता हूँ…
हर तारे में मुझ को तेरी तस्वीर नज़र आती है



अलविदा


कई दिनों तक इसके अलावा कुछ और सोच नहीं पाता था मैं... क्या रवि, मेरा दोस्त, अपनी जगह ठीक नहीं? इस मिडिल-क्लास ज़िन्दगी को अब तक जीते, इतनी जद्दो-जहद के बावजूद भी मुझे क्या हासिल हुआ है? मगर अमेरिका में, शादी के सहारे, जाकर बस जाने का एक मतलब होता कविता को धोखा देना। क्या ऐसा कर सकता था मैं? क्या ऐसा करना चाहिए था मुझे? मगर और कोई चारा भी कहाँ था, माली-तौर पर एकदम से संभलने का। लेकिन... कविता! उसका क्या? आख़िर मेरी जान थी वो, मेरी ज़िन्दगीजिसे कॉलेज के वक़्त से ही बेहद चाहता आया था मैं - मेरा पहला प्यार!

आख़िर अपने आप को, अपनी ख़ुशियों को मिटा कर, दूसरों की नज़रों में कुछ बनने का, उनके लिए कुछ करने का... फ़ैसला कर ही लिया मैंने। इससे मेरे माँ-बाप और मेरा छोटा भाई, सुधांशु, तो ख़ुश रह सकते थे; यह एक ऐसी वजह थी जिसके सामने अपनी थोड़ी सी तकलीफ़ काफ़ी छोटी लगी थी मुझे।

यूँ अचानक अपना दामन छुड़ा लेने पर मैंने कम--कम एक "क्यों" की तो उम्मीद की थी उससे, हालाँकि इससे कहीं ज़्यादा का गुनहगार था मैं! लेकिन उसने मेरे लिए शायद इन सब से कहीं बढ़कर एक सज़ा मुक़र्रर कर ली थी... उसने मुझसे कुछ नहीं कहा... कुछ भी नहीं पूछा।

थोड़ा वक़्त बीता और मैं धीरे-धीरे एक जुर्म के एहसास से घिरता चला गया... उसको भूल जाने की मेरी तमाम कोशिशें नाकाम होने लगीं। अगर मुझे ऐसा ही करना था तो उसकी भावनाओं के साथ खेलने का क्या हक़ था मुझे? क्यों उसके साथ इस बुरी तरह से जोड़ लिया था मैंने ख़ुद को... क्यों?

एक अजीब से दौर से गुज़र रहा था मैं। मेरे अंदर ख्यालों के, जज़्बात के, सैलाब उमड़ रहे थे, मैं कविता की याद में दीवाना सा हो चला था। मैं जानता था कि मैंने हमेशा उसे चाहा था, लेकिन अपने प्यार की शिद्दत को, उसकी ईमानदारी को पहले कभी नहीं जाना था मैंने। फिर उसी दौर से गुज़रते हुए मैंने रवि को ख़त लिखा कि मेरे लिए अब बदले हुए हालात के तहत अमेरिका जाकर सैटल होना मुमकिन नहीं रहा।

अब मैं ज़मीर के हाथों मजबूर होकर कविता से मिलना चाहता था, देखना चाहता था उसे, उससे कुछ सुनना चाहता था, लेकिन दो महीने बीत गए, ऐसा एक भी मौक़ा हाथ आया। तब मैंने उसे एक ख़त लिखा कि कुछ ज़ाती वजह से मैं उससे मिलना चाहता हूँ। उम्मीद के ख़िलाफ़ एक हामी भरा जवाब, और वो भी इतना जल्दी आने पर, मुझे दरअसल ख़ुशी से ज़्यादा हैरत ही हुई।

फिर वो दिन भी आन पहुँचा, घड़ी की सुईयाँ जैसे बेजान सी, धीरे-धीरे चल रही हों, मगर तीन तो आख़िर बजने ही थे, बजे। वह हमेशा की तरह ठीक वक़्त पर गई थी... ज़्यादा बातें हमारे बीच की ख़ामोशी ने कीं। मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि मैंने उसे बुलाया क्यों था - क्या मैं उसे बस देखना चाहता था... या अपने से जुदा देखना चाहता था... या मैं ख़ुद को देखना चाहता था, उसके रूह-बरूह ! या इसलिए कि शायद मैं उसे अपने दिल की भड़ास निकालने का एक मौक़ा देना चाहता था... या फिर मैं वाक़ई उस मसले का कोई हल चाहता था। ख़ैर, हमारे बीच की तब तक अखरने लगी ख़ामोशी को मैंने ही तोड़ा - पूरी सफ़ाई से, पूरी ईमानदारी से, हर इलज़ाम अपने ऊपर लेते हुए! वह बस मेरी तरफ़ एक-टक देखते हुए चुप-चाप सब कुछ सुनती रही... और फिर उसने एक ऐसी बात कह दी, जिसकी असीम चाह होते हुए भी मैं ख़ुद को जिसका हक़दार नहीं समझता था -

"मयंक, क्या हम अब भी उसी राह पर चल सकते हैं - एक साथ?"

इस सवाल का जवाब मेरे जिस्म के रोम-रोम ने दिया... मैंने बिना कुछ कहे उसकी तरफ़ देखा, उसका नाज़ुक सा हाथ अपने हाथ में लेकर, अपनी बड़ी सी "हाँ", अपना इक़रार उस तक पहुँचाते हुए!

एक सच्ची मौहब्बत ने अपने रास्ते की मुश्किलों पर क़ाबू पाने का हौसला किया था... तूफ़ान से जूझती मेरी कश्ती को किनारा दिख गया था... मैं अपना दुःख-दर्द भूल, ख़ुद को एक बार फिर क़ायम, महफ़ूज़ महसूस करने लगा था।

सिर्फ़ तीन दिन बाद मुझे कविता का एक ख़त मिला, मैंने लिफ़ाफ़ा खोल कर पूरा मज़मून पढ़ डाला... कुछ समझ नहीं रहा था, दोबारा पढ़ा... मगर लफ्ज़ ज्यूँ के त्यूँ थे .. उसके पिता जी की अब मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं रही थी, और वह उन्हें इस रिश्ते के लिए मजबूर करके किसी तरह की तकलीफ़ पहुँचाना नहीं चाहती थी। माँ के गुज़रने के बाद, वैसे भी दिल के मरीज़ उसके पिता जी, उसका इकलौता सहारा बचे थे!

अभी मैंने ख़ुद को किनारे पर पाया ही था कि मुझे उठा कर वापिस उसी समंदर में पटक दिया गया था। मगर मैंने ठान लिया कि इस फ़ैसले को इतनी आसानी से तो नहीं मानूँगा।

अगले ही दिन, मैं उसके घर पर, उसके वालिद साहब के सामने खड़ा था -

"तुम्हें ख़त तो मिल गया होगा कविता का... अब क्या लेने आए हो?"
"मेरा क़ुसूर?"
"मैं नहीं समझता कि तुम्हारे हर सवाल का जवाब देना ज़रूरी है!"
"आपको जवाब देना होगा, जनाब! इस तरह हमारी ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते आप...”
हम्म!”
आप जानते हैं मैं उसे बेहद चाहता हूँ..."
"अच्छा?” वे थोड़ा हँसते हुए बोले, “चलो, कमा कितना लेते हो?"
"ठीक से अपनी गुज़र करने लायक़…।"
"कितना?" उन्होंने थोड़ी ऊँची आवाज़ में पूछा।
"बीस हज़ार रुपये..."
"और जिम्मेवारियाँ? तुम उसे कभी ख़ुश नहीं रख पाओगे!"
"लेकिन प्यार करती है वो मुझसे..."
"उसे एक बार छोड़ने का फ़ैसला कर चुकने के बाद भी ऐसा सोचते हो तुम?"
"देखिए... बराये मेहरबानी आप..."
"तुम देखोभले आदमी!" उन्होंने मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए कहा, "मेरा ख़्याल है कि तुम एक शरीफ़ आदमी हो... इस क़िस्से को अब यहीं ख़त्म करो!"
"मैं कविता से मिलना चाहूँगा... एक बार।"
"बस अब नहीं, बर-ख़ुरदार" लहजा एकदम सपाट था, "वक़्त की और बर्बादी नहीं। और हाँ, उसे ख़त लिखने की भी कोशिश मत करना... उसके बारे में सोचना भी मत..."

मुझे लगा मैं अपनी सुनने-समझने की ताक़त खो बैठा हूँ, गुम-सुम सा, थक-हार कर मैं बाहर निकल आया। एक बार पलट कर देखा, ऊपर बाल्कनी में भीगी आँखें लिए कविता खड़ी थी, बेबस!

आस्मान में स्याह बादल छाए थेहवा में भी बारिश की नमी फैली थी।

और हर तरफ़ एक अजीब सी उदासी...
*****


Wednesday, 10 April 2019

“एक दोस्त की जान बची!”







     कॉलेज में हमारी एक तिकड़ी थी - मैं यानि अमित, अमन और मनीष I तीनों के घर एक दूसरे से तक़रीबन २० किलोमीटर की दूरी पर, एक दिल्ली के साउथ में, दूसरा वेस्ट में और मैं ईस्ट में I तीनों बिल्कुल अलग-अलग स्कूलों से निकल कर आये हुए…. लेकिन शुरू में एक बार जो कॉलेज में हमारी दोस्ती हुयी वो पच्चीस सालों से अभी तक क़ायम है; हालांकि अब पिछले बहुत अर्से से सब दिल्ली से बाहर हैं - अपने अपने काम-काज के सिलसिले में, मगर यह दूरी हमारे दिलों और दोस्ती में आज तक कोई दूरी पैदा नहीं कर पायी!
      
     आते सब अलग-अलग थे पर एक बार कॉलेज में पहुँच कर हम तीनों पूरा दिन हर क्लास में, लाइब्रेरी में, कैंटीन में, हर जगह, यहाँ तक कि टॉयलेट में भी एक साथ ही होते थे I ज़ाहिर है, कॉलेज बंक करने में भी हम अपनी दोस्ती पूरी निभाते थे...

     एक दिन मैं सबसे पहले कॉलेज पहुंचा, थोड़ी देर बाद मनीष आ गया, और फिर हम दोनों मिल कर अमन का इंतज़ार करने लगे I उस दिन का टाइम टेबल देखने पर पता चला कि लंच से पहले वाला जो इकलौता लेक्चर था, वो भी प्रोफेसर शर्मा के आज न आने की वजह से ख़ाली था… और लंच के बाद का एक और आसानी से छोड़ा जा सकता था, कौन सा कुम्भ का मेला था!
कैंटीन में बैठे न्यूज़ पेपर देखते हुए मनीष बोला, "यार चाणक्य पे एक नयी बांड मूवी लगी है!"
"कौन कर रहा है जेम्स बांड का रोल?"
"तेरा फेवरिट रॉजर मूर...क्या कहता है?
"आईडिया तो बढ़िया है, पर अमन का क्या करें?" मैंने कहा, "कहीं वो अपनी नयी सेटिंग के साथ तो नहीं घूम रहा आज?"
अमन की एक दूसरे कॉलेज की एक लड़की, नीलिमा, से अभी हाल ही में दोस्ती हुयी थी, और जब मौक़ा मिलता, वो घर वालों से छिप कर (और हमें भी बताये बिना!) अपनी नयी यामहा मोटर साइकिल पर उसको घुमाने निकल जाता था I  
"चल फ़ोन करके पूछते हैं साले को कहाँ मर गया है..." मनीष ने कहा I

     तब कोई मोबाइल फ़ोन नहीं होते थे, बाबा आदम के ज़माने के वो लैंडलाइन टेलीफोन (हमारे यहाँ तो अभी वो भी नहीं था; पड़ौस के मल्होत्रा साहब के नंबर को पीo पीo देकर काम चलता था) जिनको आज कल के बच्चे शायद किसी म्युज़ियम में ही देख पाएं! उंगली डाल कर चर्र-चर्र करते हुए नंबर घूमाना पड़ता था I उस डायल में ९ और ० इतनी दूर से घूमते हुए आते थे कि पूछिए मत!
"कहाँ से करना है?" मैंने पूछा I
"ऑफिस से कर लेते हैं, इमरजेंसी बता कर..."
"पागल है क्या, बाहर चलते हैं," मैंने कहा "वो क्लर्क गुप्ता हज़ार बातें पूछेगा!" 
"चल फिर, उठ!"
"सिक्का है ना?"
मेन गेट पर सिक्योरिटी केबिन के पास ही एक पीo सीo ओo बूथ हुआ करता था, जहां से सिक्का डाल कर फ़ोन किया जा सकता था I
"है, पर बात तू ही करेगा..." मनीष ने साफ़-साफ़ मुझे फसाते हुए कहा I
असल में अमन की मम्मी से हम बहुत डरते थे, वो पहले एक स्कूल-टीचर रह चुकी थीं और अब भी घर में सब की क्लास लेती रहती थीं, फिर वो चाहे अमन के पापा हों, अमन, या उसकी छोटी बहन अंकिता I इस क्लास और प्यार-भरी डांट-डपट से मैं और मनीष भी कभी बख़्शे नहीं जाते थे...
"चल यार, मैं ही कर लूंगा!" मैंने हिम्मत दिखाई I

     गेट पर पहुँच कर मैं टेलीफोन बूथ में दाख़िल हो गया...मनीष भी मेरे साथ ही बूथ में घुस कर खड़ा हो गया I उसको सब की गाड़ियों और फ़ोन के नंबर ज़बानी याद रहते थे!
मैंने रिसीवर उठा कर देखा, डायल टोन थी, "चल सिक्का निकाल और नंबर बोल I"
उस ने एक रुपये का सिक्का मेरे हवाले किया और नंबर बोलने लगा...वह एक-एक अंक बोलता था और मैं डायल करता जाता था...आख़िर दूसरी तरफ फ़ोन की घंटी बजी...
"क्या हुआ?" मनीष ने पूछा I
"बेल्ल जा रही है..." मैंने जवाब दिया I
एक-डेढ़ मिनट के बाद वहाँ से किसी के फ़ोन उठाते ही मैंने सिक्का खट की आवाज़ से मशीन में डाल दिया...
"हैल्लो..." अमन की मम्मी की ही आवाज़ थी I
"नमस्ते आंटी" मैंने अपनी आवाज़ में मिठास घोलते हुए कहा…
"कौन?"
"मैं हूँ आंटी, अमित...कैसी हैं आप?"
"अच्छा अमित! कैसा है रे तू?"
"सब ठीक है आंटी, आप सुनाइए..."
"मैं भी ठीक हूँ बेटा I आज कैसे याद किया आंटी को?"
"बस आंटी...ऐसे ही..."
"चल बोल"
"आंटी, अमन है?"
"अरे वो तो सुबह ही निकल गया था कॉलेज के लिए..."
"अच्छा?" मैंने हैरान होकर पूछा, और मनीष की तरफ देख कर आँख मारी!
"हाँ, क्यों? वह कॉलेज नहीं पहुंचा क्या?"
अगर मैं सच बता देता कि अब मुझे पता है वह कमीना कहाँ है तो अमन की तो उस दिन शामत पक्की थी... मैंने कुछ सोच कर कहा, "पता नहीं आंटी! मुझे लगा शायद घर पर हो..."
"तू कहाँ है, अमित?" उसकी मां की खोज-बीन शुरू हो चुकी थी I
"असल में मैं आज घर में ही हूँ, तबियत थोड़ी खराब है I" मैंने कुछ सोच कर तुरंत बात बनायी!
"ओह!" आंटी की ठंडी सांस मुझे रिसीवर में से भी सुनाई दी, "चल अपना ख़्याल रख, मौसम बदल रहा है आज-कल!"     

     हम दोनों बूथ से बाहर निकले और हंसते हुए फिर से कैंटीन की तरफ चल दिए!!


*****


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