तबियत इन दिनों बेज़ार हो चली है…
बस कि हर शै अब दुश्वार हो चली है.
बरक़रार है
अब तलक शिद्दत दर्द की…
हद मगर बर्दाश्त
की पार हो चली है.
खो गया कहीं वो चैन… वो सुकून…
वक़्त की ऐसी रफ़्तार हो चली है.
जज़्बात क़ीमत
से अलैहदा रहें तो बेहतर
मोहब्बत
तो यूँ भी कारोबार हो चली है.
ज़ख़्मों से इसके महफ़ूज़ रहें क्यूँकर…
ज़िंदगी भी दो-धारी तलवार हो चली है.
बेज़ार: अप्रसन्न; दुश्वार: मुश्किल; शिद्दत:
तीव्रता;
अलैहदा: अलग; महफ़ूज़: सुरक्षित
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