Stories

Saturday, 23 February 2019

“एक अज्ञात प्रेयसी के नाम...”



उम्मीदें…
क्यों मैं करता हूँ
इतनी तुमसे ?!
यह जानते हुए भी कि…
तुम मुझे जानती भी नहीं !
इंतज़ार किया करता हूँ
तुम्हारा… नाहक़ (!)
क्योंकि वादा तो दूर की बात
तुमसे कभी ‘मिला’ ही नहीं !
हैराँ हूँ अपनी दीवानगी पे,
तुम्हें जो समझता हूँ
इस क़दर अपना
जागते हुए भी आँखों में
सजाए रहता हूँ…
तुम्हारा ही कोई सपना
क़सम तुम्हारी आँखों की
बला की ख़ूबसूरती की….
सोचा ना था कभी
ऐसा भी दौर आएगा
यूँ बारहा नाउम्मीद हो कर भी
यह दिल… तुम्ही को चाहेगा……





Saturday, 16 February 2019

"वक़्त से...!"







सबके भरने का दम भरता है मेरे भी तो भर,
कुछ ज़ख़्म तकलीफ़ देते हैं, उनका कुछ कर!

तेरे गुज़रने पर सुना है सब कुछ भूल जाता है,
शायद वो सदमे भी जो दिल में बना चुके घर!

बुरा बन कर तो बहुत राब्ता रख लिया दोस्त,
किसी रोज़ अच्छा बन कर निकल आ इधर!

यह क्या ज़िद है कि चला गया तो आता नहीं,
कोई प्यार से बुलाए तो कभी पलट आया कर!

हर ग़लत बात पर लोग तेरा ही नाम लेते हैं,
क्यों इतने इल्ज़ाम लिए फिरता है अपने सर?!


राब्ता: वास्ता, संबंध



Saturday, 9 February 2019

“ज़िंदगी...”






तबियत इन दिनों बेज़ार हो चली है…
बस कि हर शै अब दुश्वार हो चली है.

     बरक़रार है अब तलक शिद्दत दर्द की…
     हद मगर बर्दाश्त की पार हो चली है.

खो गया कहीं वो चैन… वो सुकून…
वक़्त की ऐसी रफ़्तार हो चली है.

     जज़्बात क़ीमत से अलैहदा रहें तो बेहतर
     मोहब्बत तो यूँ भी कारोबार हो चली है.

ज़ख़्मों से इसके महफ़ूज़ रहें क्यूँकर…
ज़िंदगी भी दो-धारी तलवार हो चली है.

बेज़ार: अप्रसन्न; दुश्वार: मुश्किल; शिद्दत: तीव्रता;
अलैहदा: अलग; महफ़ूज़: सुरक्षित



Saturday, 2 February 2019

"कालिख़"





"क्या हुआ?"
"सब लोग काहे को जमा हैं?"
"क्या, फिर कोई डूब गया नदी में क्या?"
कोयला-खानों के मज़दूरों की बस्ती के पास वाली नदी पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। कुछ देर बाद तैरती हुई युवती को किनारे पर लाया गया - गोमा की लाश थी। गोमा, बंसी की जवान बेटी, जो पिछले दो दिनों से ग़ायब थी...

"अब यह कैसे डूब गई?"
"ससुरी ने खुदकुसी कर ली क्या?"
मज़दूर लोग अपने दिमाग़ को एक सीमित दायरे में दौड़ाते हुए नतीजे पर पहुँचने की कोशिश में लगे थे।

और इधर रधिया...परेशान-सी, बस्ती की एक वृद्धा से पूछ रही थी,
"चाची, क्या हुआ अपनी गोमा को?"
"होना क्या है री?! मुंह काला करवा आई होगी कहीं से करमजली... और फिर खुदकुसी कर ली...”
"यह खुदकुसी क्या होता है चाची?"
यह और बात है किरधिया की अल्हड सी बुद्धि में मुंह काला करवाने वाली बात भी नहीं आई थी...'कोयला खानों में काम करने वाले मजूरों का मुंह भी तो काला होगा ही...!' रधिया अभी पन्द्रह ही की थी, परन्तु उसके मानसिक और शारीरिक विकास में बहुत फ़र्क़ था।
"अरी पगली, जब कोई लड़की नदी में डूब मरती है तो उसको खुदकुसी कहते हैं...," चाची ने समझाया।

इतने में मालिक साहब की सफ़ेद, लम्बी गाड़ी वहाँ पहुँची - तहक़ीक़ात के लिए।
रास्ता छोड़ कर पीछे हटती भीड़ में मालिक साहब ने रधिया को देखा
"अपने हरिया की बहन है साब!" उनके 'ख़ास आदमी' ने कान में बताया।

रोते-बिलखते बंसी को मालिक साहब कफ़न-दफ़न के लिए दो हज़ार रुपये देकर, सहानुभूति जता कर, थोड़ी देर बाद अपनी गाड़ी में बैठ कर लौट गए...

...और कुछ दिन बाद -
नदी किनारे फिर भीड़ जमा थी।
सब हरिया को सांत्वना दे रहे थे...!!


https://storymirror.com/read/story/hindi/h7ycgvqe/kaalikhh