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Saturday, 3 November 2018

“एक अजनबी शहर”





यूँ तो यहाँ रहते, एक अर्सा बीत चुका है…
पर फिर भी - पता नहीं क्यों
कभी-कभी अजनबी सा लगने लगता है यह शहर.

दिल बेचैन होकर इतने ‘अपनों’ में
किसी अपने को ढूँढ़ने लगता है जैसे,
पता नहीं क्यों, पर होता है ऐसा मेरे साथ अक्सर.

ये चिर-परिचित सड़कें एक प्रश्न-वाचक चिन्ह
बन खड़ी होती हैं, और पूछने लगती हैं…
क्या पहले भी कभी गुज़र चुका हूँ मैं इन पर से?

और तब… एक औपचारिक सी मुस्कान होंटों पे लिए
अपनी और इनकी घनिष्ठता को बख़ूबी समझते हुए,
कुछ कहना चाह कर भी ख़ामोश-अवाक खड़ा रहता हूँ.

चप्पे-चप्पे से इस शहर के वाक़िफ़ हूँ मैं;
बहुत से सूर्य यहाँ मेरे सामने उदय हुए हैं
और जाने कितनी शामों को ढलते देखा है यहाँ मैंने….

पर फिर भी - पता नहीं क्यों, कभी-कभी;
एक अजनबी सा लगने लगता है यह शहर मुझे!






6 comments:

  1. Replies
    1. Thanks...
      This was my first complete poem.
      And the nostalgia around it!
      Written in 1981, when I was in school, in class XI.
      My own Punjabi translation of this piece was published in a then leading magazine called 'Punjabi Digest' 😊

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