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Saturday, 10 November 2018

हिम्मत-अफ़्ज़ाई...!






इन से कब कुछ हुआ है... आँसुओं को तो थाम लो,
नाकामियों की छोड़ फ़िक़्र, सिर्फ़ हौसले से काम लो!

तक़दीर कोई दुश्मन नहीँ कि हमेशा रहेगी ख़िलाफ़,
ख़फ़ा सही, माशूक़ ही है, वही दर्जा, वही मक़ाम दो!
         
थक गए हो अगर चलके, दम लो, थोड़ा रुक जाओ,
ख़ुद को एक जाम... और क़दमों को ज़रा आराम दो!

कोशिशें मुसलसल हैँ अगर, ख़्वाब अधूरे रहेंगे क्यों?
मंज़िल चलके क़रीब आएगी, तुम अगरचे ठान लो!


हमराह अगर मिले कोई दुःख-सुख बांटो, साथ चलो
वगरना अपने इस सफ़र को ख़ुद-ब-ख़ुद अंजाम दो!!

हिम्मत-अफ़्ज़ाई: हौसला बढ़ाना; 
मुसलसल: लगातार; अगरचे: अगर; वगरना: वर्ना    

https://storymirror.com/read/poem/hindi/nv7rwrjk/himmt-aphjaaii

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Saturday, 3 November 2018

“एक अजनबी शहर”





यूँ तो यहाँ रहते, एक अर्सा बीत चुका है…
पर फिर भी - पता नहीं क्यों
कभी-कभी अजनबी सा लगने लगता है यह शहर.

दिल बेचैन होकर इतने ‘अपनों’ में
किसी अपने को ढूँढ़ने लगता है जैसे,
पता नहीं क्यों, पर होता है ऐसा मेरे साथ अक्सर.

ये चिर-परिचित सड़कें एक प्रश्न-वाचक चिन्ह
बन खड़ी होती हैं, और पूछने लगती हैं…
क्या पहले भी कभी गुज़र चुका हूँ मैं इन पर से?

और तब… एक औपचारिक सी मुस्कान होंटों पे लिए
अपनी और इनकी घनिष्ठता को बख़ूबी समझते हुए,
कुछ कहना चाह कर भी ख़ामोश-अवाक खड़ा रहता हूँ.

चप्पे-चप्पे से इस शहर के वाक़िफ़ हूँ मैं;
बहुत से सूर्य यहाँ मेरे सामने उदय हुए हैं
और जाने कितनी शामों को ढलते देखा है यहाँ मैंने….

पर फिर भी - पता नहीं क्यों, कभी-कभी;
एक अजनबी सा लगने लगता है यह शहर मुझे!